पत्रकार शिवकुमारजी गोयल अपने संस्मरणों में लिखते हैं किः
कई वर्ष पहले अमेरिका से एक सुशिक्षित एवं तेजस्वी युवक को ईसाई धर्म का प्रचार और प्रसार करने के उद्देश्य से भारत भेजा गया। इस प्रतिभाशाली एवं समर्पित भावनावाले युवक का नाम था सैम्युल एवन्स स्टौक्स।
भारत में उसे हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाके में ईसाई धर्म के प्रचार का कार्य सौंपा गया। यह क्षेत्र निर्धनता और पिछड़ेपन से ग्रसित था। अतः पादरी स्टौक्स ने गरीब अनपढ़ पहाड़ी लोगों में कुछ ही समय में ईसाइयत के प्रचार में सफलता प्राप्त कर ली। उसने अपने प्रभाव और सेवा-भाव से हजारों पहाड़ियों को हिन्दू धर्म से च्युत कर ईसाई बना लिया। उनके घरों से रामायण, गीता और अवतारों की मूर्तियाँ हटवाकर बाइबिल एवं ईसा की मूर्तियाँ स्थापित करा दीं।
एक दिन पादरी स्टौक्स कोटागढ़ के अपने केन्द्र से सैर करने के लिए निकले कि सड़क पर उन्होंने एक तेजस्वी गेरूए वस्त्रधारी संन्यासी को घूमते देखा। एक दूसरे से परिचय हुआ तो पता चला कि वे मद्रास के स्वामी सत्यानन्द जी हैं तथा हिमालय-यात्रा पर निकले हैं।
पादरी स्टौक्स विनम्रता की मूर्ति तो थे ही, अतः उन्होंने स्वामी से रात्रि को अपने निवास स्थान पर विश्राम कर धर्म के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने का अनुरोध किया, जिसे स्वामी जी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
स्वामी जी ने रात्रि को गीता का पाठ कर भगवान श्रीकृष्ण की उपासना की। स्टौक्स और उनका परिवार जिज्ञासा के साथ इस दृश्य को देखते रहे। रातभर गीता, अध्यात्मवाद, हिन्दू धर्म के महत्व और अतिभौतिकवाद से उत्पन्न अशान्ति पर चर्चा होती रही। स्टौक्स परिवार गीता की व्याख्या सुनकर गीता-तत्त्व से बहुत ही प्रभावित हुआ। भारत के अध्यात्मवाद, भारतीय दर्शन और संस्कृति की महत्ता ने उनकी आँखें खोल दीं। भगवान श्रीकृष्ण तथा गीता ने उनके जीवन को ही बदल दिया।
प्रातःकाल ही युवा पादरी स्टौक्स ने स्वामी जी से प्रार्थना कीः
"आप मुझे अविलम्ब सपरिवार हिन्दू धर्म में दीक्षित करने की कृपा करें। मैं अपना शेष जीवन गीता और हिन्दू धर्म के प्रचार में लगाऊँगा तथा पहाड़ी गरीबी की सेवा कर अपना जीवन धर्मपरायण भारत में ही व्यतीत करुँगा।"
कालान्तर में उन्होंने कोटगढ़ में भव्य गीता मन्दिर का निर्माण कराया। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित करायीं। बर्मा से कलात्मक लकड़ी मँगवाकर उस पर पूरी गीता के श्लोक खुदवाये। सेबों का विशाल बगीचा लगवाया। सत्यानन्द स्टौक्स अब भारत को ही अपनी पुण्य-भूमि मानकर उसकी सुख-समृद्धि में तन्मय हो गये। भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में भी उन्होंने सक्रिय रूप से भाग लिया तथा छः मास तक जेल यातनाएँ भी सहन कीं। महामना मालवीयजी के प्रति उनकी अगाध निष्ठा थी।
उन्होंने देवोपासना, 'टू एवेकिंग इंडिया' तथा 'गीता-तत्त्व' आदि पुस्तकें लिखीं। उनकी 'पश्चिमी देशों का दिवाला' पुस्तक तो बहुत लोकप्रिय हुई, जिसकी भूमिका भी दीनबन्धु एंड्रूज ने लिखी थी।
महामना मालवीय जी ने एक बार उनसे पूछाः
"आप हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन करा कर ईसाई बनाने के उद्देश्य से भारत आये थे, किन्तु स्वयं किस कारण ईसाई धर्म त्याग कर हिन्दू धर्म में दीक्षित हो गये?"
इस पर उन्होंने उत्तर दियाः
"भगवान की कृपा से मेरी यह भ्रान्ति दूर हो गई कि अमेरिका या ब्रिटेन भारत को ईसा का सन्देश देकर सुख-शान्ति की स्थापना और मानवता की सेवा कर सकते हैं। मानवता की वास्तविक सेवा तो गीता, हिन्दू धर्म और अध्यात्मवाद के मार्ग से ही सम्भव है। इसीलिए गीता-तत्त्व से प्रभावित होकर मैंने हिन्दू धर्म और भारत की शरण ली है।"
लेखकः श्री शिवकुमार गोयल
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