Saturday, 13 August 2011

केवल निधि


जिसको केवली कुम्भक सिद्ध हो जाता है, वह पूजने योग्य बन जाता है । यह योग की एक ऐसी कुंजी है कि छ: महीने के दृढ़ अभ्यास से साधक फिर वह नहीं रहता जो पहले था । उसकी मनोकामनाएँ तो पूर्ण हो ही जाती हैं, उसका पूजन करके भी लोग अपनी मनोकामना सिद्ध करने लगते हैं ।

जो साधक पूर्ण एकाग्रता से इस पुरुषार्थ को साधेगा, उसके भाग्य का तो कहना ही क्या ? उसकी व्यापकता बढ़ती जायेगी । महानता का अनुभव होगा । वह अपना पूरा जीवन बदला हुआ पायेगा ।

बहुत तो क्या, तीन ही दिनों के अभ्यास से चमत्कार घटेगा । तुम, जैसे पहले थे वैसे अब न रहोगे । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि षडविकार पर विजय प्राप्त करोगे।

काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि : मेरे चिरजीवन और आत्मलाभ का कारण प्राणकला ही है ।

प्राणायाम की विधि इस प्रकार है:

स्नान शौचादि से निपटकर एक स्वच्छ आसन पर पद्मासन लगाकर सीधे बैठ जाओ । मस्तक, ग्रीवा और छाती एक ही सीधी रेखा में रहें । अब दाहिने हाथ के अँगूठे से दायाँ नथुना बन्द करके बाँयें नथुने से श्वास लो । प्रणव का मानसिक जप जारी रखो । यह पूरक हुआ । अब जितने समय में श्वास लिया उससे चार गुना समय श्वास भीतर ही रोके रखो । हाथ के अँगूठे और उँगलियों से दोनों नथुने बन्द कर लो । यह आभ्यांतर कुम्भक हुआ । अंत में हाथ का अँगूठा हटाकर दायें नथुने से श्वास धीरे धीरे छोड़ो । यह रेचक हुआ । श्वास लेने में (पूरक में) जितना समय लगाओ उससे दुगुना समय श्वास छोड़ने में (रेचक में) लगाओ और चार गुना समय कुम्भक में लगाओ । पूरक कुम्भक रेचक के समय का प्रमाण इस प्रकार होगा 1:4:2

दायें नथुने से श्वास पूरा बाहर निकाल दो, खाली हो जाओ । अंगूठे और उँगलियों से दोनों नथुने बन्द कर लो । यह हुआ बहिर्कुम्भक । फिर दायें नथुने से श्वास लेकर, कुम्भक करके बाँयें नथुने से बाहर निकालो । यह हुआ एक प्राणायम ।

पूरक कुम्भक रेचक कुम्भक पूरक कुम्भक रेचक ।

इस समग्र प्रक्रिया के दौरान प्रणव का मानसिक जप जारी रखो ।

एक खास महत्व की बात तो यह है कि श्वास लेने से पहले गुदा के स्थान को अन्दर सिकोड़ लो यानी ऊपर खींच लो। यह है मूलबन्ध ।

अब नाभि के स्थान को भी अन्दर सिकोड़ लो । यह हुआ उड्डियान बन्ध ।

तीसरी बात यह है कि जब श्वास पूरा भर लो तब ठोंड़ी को, गले के बीच में जो खड्डा है-कंठकूप, उसमें दबा दो । इसको जालन्धर बन्ध कहते हैं।

इस त्रिबंध के साथ यदि प्राणायाम होगा तो वह पूरा लाभदायी सिद्ध होगा एवं प्राय: चमत्कारपूर्ण परिणाम दिखायेगा ।

पूरक करके अर्थात् श्वास को अंदर भरकर रोक लेना इसको आभ्यांतर कुम्भक कहते हैं । रेचक करके अर्थात् श्वास को पूर्णतया बाहर निकाल दिया गया हो, शरीर में बिलकुल श्वास न हो, तब दोनों नथुनों को बंद करके श्वास को बाहर ही रोक देना इसको बहिर्कुम्भक कहते हैं । पहले आभ्यान्तर कुम्भक और फिर बहिर्कुम्भक करना चाहिए ।

आभ्यान्तर कुम्भक जितना समय करो उससे आधा समय बहिर्कुम्भक करना चाहिए । प्राणायाम का फल है बहिर्कुम्भक । वह जितना बढ़ेगा उतना ही तुम्हारा जीवन चमकेगा । तन मन में स्फूर्ति और ताजगी बढ़ेगी । मनोराज्य न होगा ।

इस त्रिबन्धयुक्त प्राणायाम की प्रक्रिया में एक सहायक एवं अति आवश्यक बात यह है कि आँख की पलकें न गिरें । आँख की पुतली एकटक रहे । आँखें खुली रखने से शक्ति बाहर बहकर क्षीण होती है और आँखे बन्द रखने से मनोराज्य होता है । इसलिए इस प्राणायम के समय आँखे अर्द्धोन्मीलित रहें आधी खुली, आधी बन्द । वह अधिक लाभ करती है ।

एकाग्रता का दूसरा प्रयोग है जिह्वा को बीच में रखने का । जिह्वा तालू में न लगे और नीचे भी न छुए । बीच में स्थिर रहे । मन उसमें लगा रहेगा और मनोराज्य न होगा । परंतु इससे भी अर्द्धोन्मीलित नेत्र ज्यादा लाभ करते हैं ।

प्राणायाम के समय भगवान या गुरु का ध्यान भी एकाग्रता को बढ़ाने में अधिक फलदायी सिद्ध होता है । प्राणायाम के बाद त्राटक की क्रिया करने से भी एकाग्रता बढ़ती है, चंचलता कम होती है, मन शांत होता है ।

प्राणायाम करके आधा घण्टा या एक घण्टा ध्यान करो तो वह बड़ा लाभदायक सिद्ध होगा ।

एकाग्रता बड़ा तप है। रातभर के किए हुए पाप सुबह के प्राणायाम से नष्ट होते हैं । साधक निष्पाप हो जाता है । प्रसन्नता छलकने लगती है ।

जप स्वाभाविक होता रहे यह अति उत्तम है । जप के अर्थ में डूबे रहना, मंत्र का जप करते समय उसके अर्थ की भावना रखना । कभी तो जप करने के भी साक्षी बन जाओ । वाणी, प्राण जप करते हैं । मैं चैतन्य, शांत, शाश्वत् हूँ ।खाना पीना, सोना जगना, सबके साक्षी बन जाओ । यह अभ्यास बढ़ता रहेगा तो केवली कुम्भक होगा । तुमने अगर केवली कुम्भक सिद्ध किया हो और कोई तुम्हारी पूजा करे तो उसकी भी मनोकामना पूरी होगी ।

प्राणायाम करते करते सिद्धि होने पर मन शांत हो जाता है । मन की शांति और इन्द्रियों की निश्चलता होने पर बिना किये भी कुम्भक होने लगता है । प्राण अपने आप ही बाहर या अंदर स्थिर हो जाता है और कलना का उपशम हो जाता है । यह केवल, बिना प्रयत्न के कुम्भक हो जाने पर केवली कुम्भक की स्थिति मानी गई है। केवली कुम्भक सद्गुरु के प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में करना सुरक्षापूर्ण है।

मन आत्मा में लीन हो जाने पर शक्ति बढ़ती है क्योंकि उसको पूरा विश्राम मिलता है । मनोराज्य होने पर बाह्म क्रिया तो बन्द होती है लेकिन अंदर का क्रियाकलाप रुकता नहीं । इसीसे मन श्रमित होकर थक जाता है ।

ध्यान के प्रारंभिक काल में चेहरे पर सौम्यता, आँखों में तेज, चित्त में प्रसन्नता, स्वर में माधुर्य आदि प्रगट होने लगते हैं । ध्यान करनेवाले को आकाश में श्वेत त्रसरेणु (श्वेत कण) दिखते हैं । यह त्रसरेणु बड़े होते जाते हैं । जब ऐसा दिखने लगे तब समझो कि ध्यान में सच्ची प्रगति हो रही है ।

केवली कुम्भक सिद्ध करने का एक तरीका और भी है । रात्रि के समय चाँद की तरफ दृष्टि एकाग्र करके, एकटक देखते रहो । अथवा, आकाश में जितनी दूर दृष्टि जाती हो, स्थिर दृष्टि करके, अपलक नेत्र करके बैठे रहो । अडोल रहना । सिर नीचे झुकाकर खुर्राटे लेना शुरु मत करना । सजग रहकर, एकाग्रता से चाँद पर या आकाश में दूर दूर दृष्टि को स्थिर करो ।

जो योगसाधना नहीं करता वह अभागा है । योगी तो संकल्प से सृष्टि बना देता है और दूसरों को भी दिखा सकता है । चाणाक्य बड़े कूटनीतिज्ञ थे । उनका संकल्प बड़ा जोरदार था । उनके राजा के दरबार में कुमागिरि नामक एक योगी आये । उन्होंने चुनौती के उत्तर में कहा :मैं सबको भगवान का दर्शन करा सकता हूँ ।
राजा ने कहा : कराइए ।

उस योगी ने अपने संकल्पबल से सृष्टि बनाई और उसमें विराटरुप भगवान का दर्शन सब सभासदों को कराया । वहाँ चित्रलेखा नामक राजनर्तकी थी । उसने कहा : मुझे कोई दर्शन नहीं हुए।

योगी: तू स्त्री है इससे तुझे दर्शन नहीं हुए ।
तब चाणक्य ने कहा : मुझे भी दर्शन नहीं हुए ।

वह नर्तकी भले नाचगान करती थी फिर भी वह एक प्रतिभासंपन्न नारी थी । उसका मनोबल दृढ़ था । चाणक्य भी बड़े संकल्पवान थे । इससे इन दोनों पर योगी के संकल्प का प्रभाव नहीं पड़ा । योगबल से अपने मन की कल्पना दूसरों को दिखाई जा सकती है । मनुष्य के अलावा जड़ के ऊपर भी संकल्प का प्रभाव पड़ सकता है। खट्टे आम का पेड़ हाफुस आम दिखाई देने लगे, यह संकल्प से हो सकता है ।

मनोबल बढ़ाकर आत्मा में बैठे जाओ, आप ही ब्रह्म बन जाओ । यही संकल्पबल की आखिरी उपलब्धि है ।

निद्रा, तन्द्रा, मनोराज्य, कब्जी, स्वप्नदोष, यह सब योग के विघ्न हैं । उनको जीतने के लिए संकल्प काम देता है । योग का सबसे बड़ा विघ्न है वाणी । मौन से योग की रक्षा होती है । नियम से और रुचिपूर्वक किया हुआ योगसाधन सफलता देता है । निष्काम सेवा भी बड़ा साधन है किन्तु सतत बहिर्मुखता के कारण निष्काम सेवा भी सकाम हो जाती है । देह में जब तक आत्म सिद्धि है तब तक पूर्ण निष्काम होना असंभव है ।

हम अभी गुरुओं का कर्जा चढ़ा रहे हैं । उनके वचनों को सुनकर अगर उन पर अमल नहीं करते तो उनका समय बरबाद करना है । यह कर्जा चुकाना हमारे लिए भारी है । लेकिन संसारी सेठ के कर्जदार होने के बजाय संतो के कर्जदार होना अच्छा है और उनके कर्जदार होने के बजाय साक्षात्कार करना श्रेष्ठ है । उपदेश सुनकर मनन, निदिध्यासन करें तो हम उस कर्जे को चुकाने के लायक होते हैं ।
प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू :-- 


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